कविता
मैं माँ बोल रही हूं
सपनों को खोल रही हूं
चुन चुन बुनती रही हूं एक पोटली सजों रही हूं जिम्मेदारियों से निकल रही हूं धरोहर सी धर रही हूं। मैं कहना चाह रही हूं कहूं या ना कहूं? किससे कहूं सोच रही हूं मन को टाटोह रही हूं आस पास देख रहीं हूं
रेत सी फिसल रही हूं
किसी डोर को पकड़ रही हूं
मैं थक रही हूं ।
मैं माँ बोल रही हूं
चुप्पियों को जगा रही हूं
उम्मीदों को सुला रही हूं
टीस तो छुपा रही हूं
मैं खुद से बता रही हूं
पद्चाप सुन रही हूं
धुंधला सा देख रही हूं।
मैं माँ बोल रही हूं
टटोलते टटोलते आ रही हूं खुद को समझा रही हूं इस वक्त सेअघा रही हूं
इसी वक्त को बुझा रही हूं
मैं क्या चाह रही हूं
सारी आशाएं लु टा रही हूं
मैं क्या मांग रही हूं।
मैं माँ बोल रही हूं
द हलीज पे खड़ी पीछे देख रही हूं
घर आंगन सवार रही हूं
किलकारियों के शोर को दामन में भर रही हूं
मनचाहे सपनो में जोश भर रही हूं
हर वक्त जिनके संग रही हूं
उन्ही से बस कुछ वक्त मांग रही हूं
मैं माँ बोल रही हूं
छुड़ा के हाथ जा रही हूं
जाना तो तय था । हालत देख रही हूं
इस वक्त की पहेली को छोड़े जा रही हूं
ना पैर से जा रही हूं न हाथ लगा रही हूं
बस हाथ और पैरों की बात बता रही हूं
कुछ निशानिया कुछ कहानियां छोड़ें जा रही हूं
सबक लेना , सीख लेना, बस इतना बता रही हूं
मैं माँ बोल रही हूं
ममता सिंह राठौर
कानपुर
1 thought on “मैं माँ बोल रही हूं”
बेहतरीन शब्द और माँ की गाथा